
शिमला: राजनीति का खेल ऐसा है कि जो भी दल सत्ता में होता है वो सिंहासन के मद में गिरफ्तार हो ही जाता है। एक समय में वीरभद्र सिंह ने पंडित सुखराम को किनारे लगाने की कोशिश की, लेकिन सुखराम के पलटवार से सत्ता कांग्रेस के हाथ से छिन गई थी। ये 1998 की बात थी और सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस ने सत्ता का समीकरण बदल कर रख दिया था। किसी समय भाजपा के सांसद और राज्य सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे राजन सुशांत ने हाल ही में नए दल का गठन किया है। सीएम जयराम ठाकुर ने सुशांत की पार्टी के गठन पर प्रतिक्रिया में कहा कि तीसरे मोर्चे का हिमाचल में कोई खास असर नहीं रहा है परंतु ये नहीं भूलना चाहिए कि हिमाचल छोटा राज्य है और यहां दो से तीन सीट भी अगर किसी बड़े दल से खिसक जाए तो सत्ता का संतुलन तीसरे मोर्चे के पास आ सकता है।
राजन सुशांत ने दावा किया है कि उनकी पार्टी सभी 68 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। सीएम जयराम ठाकुर ने तो यहां तक कह दिया कि हिमाचल की राजनीति में अब तक नए दल के गठन का प्रयास खास सफल नहीं रहा है। इन परिस्थितियों में ये नहीं भूलना चाहिए कि 1998 में दिग्गज नेता पंडित सुखराम ने नई पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस का गठन किया और कांग्रेस के हाथ से सत्ता चली गई थी। हिमाचल में तब भाजपा के साथ मिलकर हिमाचल विकास कांग्रेस ने सरकार बनाई थी और हिविकां के पांच एमएलए थे। इससे पहले के उदाहरण देखें तो महेश्वर सिंह की पार्टी हिमाचल लोक हित पार्टी यानी हिलोपा से केवल महेश्वर ही चुनाव जीते। इसी तरह महेंद्र सिंह ने हिम लोकतांत्रिक मोर्चा का गठन किया था। तब भी केवल महेंद्र सिंह ही चुनाव जीते थे। बसपा से चौधरी संजय कुमार अकेले जीते थे।
अब राजन सुशांत ने नई पार्टी बनाई है। राजन सुशांत भाजपा से सांसद रहे हैं और साथ ही पूर्व में हिमाचल सरकार में कैबिनेट मंत्री। सुशांत का प्रभाव कांगड़ा जिला में अधिक माना जाता है। उन्हें सभी सीटों पर मजबूत प्रत्याशी भी चुनने हैं और संगठन को भी सक्रिय करना है। मौजूदा परिस्थितियों में बेशक ये काम कठिन लगे, परंतु किसी भी नए दल को कम आंकना सत्ताधारी दल भाजपा को महंगा भी पड़ सकता है।
अगर, हिमाचल की बात की जाए तो यहां मुख्य रूप से दो ही राजनीतिक दल प्रभावी हैं। यहां बारी-बारी से सत्ता भाजपा व कांग्रेस के हाथ रही है। परंतु 1998 में पंडि़त सुखराम ने कांग्रेस से नाराज होकर नया दल बनाया और सत्ता की चाबी कांग्रेस के हाथ से छिन गई। सुखराम की पार्टी ने भाजपा को समर्थन दिया और प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में भाजपा-हिविकां सरकार बनी। ज्वालामुखी से निर्दलीय के तौर पर चुनाव जीत कर आए रमेश ध्वाला का सत्ता में अहम रोल रहा था। हिमाचल में लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, बसपा, शिवसेना, टीएमसी आदि ने भी प्रयास किए, लेकिन ये सिरे नहीं चढ़े। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की हिमाचल में कमान पूर्व विधानसभा अध्यक्ष और भाजपा के कद्दावर नेता डॉ. राधारमण शास्त्री ने संभाली थी। बसपा को मेजर विजय सिंह मनकोटिया ने सक्रिय किया था। बसपा का एक मात्र उम्मीदवार कांगड़ा से चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचा। अन्यथा बाकी दलों की हालत यह है कि इन्हें प्रदेश में क्षेत्रीय दल का दर्जा भी नहीं मिला है। हिमाचल लोक हित पार्टी बनाकर महेश्वर सिंह ने प्रदेश में सियासी हलचल मचाई थी, लेकिन वो भी खुद के अलावा किसी अन्य को चुनाव नहीं जिता सके। बाद में सभी अपने मूल दलों में लौट आए।
मौजूदा समय में हिमाचल में राजनीतिक परिदृश्य बदल चुका है। भाजपा में जयराम ठाकुर का दौर है। ऐसे में राजनीतिक समीकरण बदल चुके हैं। लेकिन सुशांत भाजपा का खेल बिगाडऩे में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। अब देखना है कि किसी समय के भाजपा सांसद और हिमाचल सरकार के कैबिनेट मंत्री राजन सुशांत दो साल में अपने नए दल के साथ कितने लोगों को जोड़ते हैं और कितना सक्रिय हो पाते हैं। वैसे भाजपा को भी सत्ता के अहंकार में चूर नहीं रहना चाहिए। राजन सुशांत कोई नौसिखिया नहीं हैं। उनका लंबा राजनीतिक जीवन है। फिर मौजूदा सरकार में कांगड़ा जिला में कई नेताओं के चेहरे पर नाराजगी है। भाजपा में कांगड़ा हमेशा से सियासी तूफाना लाता रहा है। सुशांत भी कांगड़ा से हैं और उनके पास अभी दो साल का समय है। ऐसे में भाजपा को उन्हें हल्के में लेना भारी पड़ सकता है।