सेब के आक्समिक पतझड और स्कैब का प्राकृतिक विधि से सस्ता और टिकाउ ईलाज

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प्रदेश की जीडीपी पर में कृषि-बागवानी और संबंद्ध क्षेत्र का 13 प्रतिशत योगदान है। इसमें से सेब बागवानी का शेयर 3.5 फीसदी है जो कि बहुत महत्वपूर्ण है।  प्रदेश की 4500 करोड़ रूपये की सेब बागवानी से हिमाचल प्रदेश में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लाखों लोग रोजगार पा रहे हैं। ऐसे में सेब बागवानी के इस क्षेत्र को बीमारियों से बचाकर रखने की एक बड़ी चुनौती बागवानों और सरकारों के सामने है। सेब-बागवानी में बागवानों की लागत को कम करने के लिए सरकार की ओर से प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना की शुरूआत की गई है। इस योजना के तहत सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती विधि को शुरू किया गया है। इस विधि के तहम किसान-बागवानों की बाजार पर निर्भरता को कम करते हुए खेती-बागवानी के लिए सभी आदान घर पर तैयार करने का विकल्प दिया गया है। सेब बागवानी में अनेकों बीमारियों के बचाव के लिए बागवान हर साल लाखों रूपये की दवाईयों की खरीद बाजार से करते हैं, जिससे बागवानों के मुनाफे में कमी आती है। प्राकृतिक विधि में बताए गए आदान सेब की दो मुख्य बीमारियों पर नियंत्रण के लिए कारगर सिद्ध हुए हैं। बागवानी विकास अधिकारी डाॅ किशोर शर्मा ने बताया कि आजकल के मौसम में सेब बगिचों में पतझड़ रोग और स्कैब की दिक्कत से निपटारे के लिए बागवानों को प्राकृतिक विधि में बताए हुए आदानों को प्रयोग करना चाहिए। उन्होंने बताया कि यह सस्ते होने के साथ बहुत कारगर भी हैं। उन्होंने बताया कि प्रदेश में प्राकृतिक विधि से हजारों किसान सेब बागवानी कर रहे हैं और इसके बेहतर परिणाम देखने को मिले हैं।

पत्तों का पतझड़ रोग
सेब का आक्समिक पतझड़ रोग मारसानिना कोरोनेरिया ( फफूंद ) के कारण होता है।

लक्षण:
1- जून के आरम्भ में सेब की पत्तियों के निचले भाग में गोल आकार के हरे
धब्बे बनने लगते हैं। फिर धीरे-2 एक-दूसरे से मिलते हुए, भूरे रंग के बड़े
आकार के बन जाते हैं।
2- पतियों का अन्य भाग पीला पड़ जाता है। धीरे-2 पतियां एक दम नीचे
गिर जाती हैं, तथा फल टहनियों पर ही झूलते रहते हैं।

सेब का पपड़ी रोग (एप्पल स्कैब)
यह रोग वेनचुरिया इनइक्वालिस नामक फफूंद द्वारा हाता है।

लक्षणः
1- आजकल के जैसे मौसम में पत्तियों पर छोटे-2 गोले, जैतून-हरे रंग के धब्बे
आदि नजर आये तो समझो बगीचे में स्कैब का प्रकोप आ रहा है।
2- ये धब्बे धीरे-2 भूरे-काले पड़ते है तथा आपस मे मिलकर बड़े धब्बों में बदल
जाते हं।
3- पतियां अपना आकार बदल देती हैं और समय से पहले गिरने लगती हैं ।
रोकथामः
5 बीघा के बगीचे में सेब के पौधों पर निम्न छिड़काव करेंः
1- जीवामृत 20 लीटर  $  10 लीटर खट्टी लस्सी को 170 लीटर पानी में
डालकर पहला छिड़काव करें
 15 दिन के बाद
2- जीवामृत 20 लीटर/180 लीटर पानी में डालकर छिड़काव करें।
15 दिन के बाद
3- खट्टी लस्सी 6-8 लीटर या सौंठास्त्र को 200 लीटर पानी में मिलाकर या
जंगल की कंडी बिना पानी मिलाकर छिड़काव करें।
15 दिन के बाद
4- जीवामृत 20 लीटर  $ 10 लीटर खटटी लस्सी को 170 लीटर पानी में
डालकर छिड़काव करें।
15 दिन के बाद
5- जीवामृत 20 लीटर/180 लीटर पानी में डालकर छिड़काव करें

एक बीघा के लिए जीवामृत बनाने के लिए आवश्यक सामग्री।
पानी-40 लीटर
देसी गाय का मूत्र- 2 लीटर
देसी गाय का गोबर- 2 किलोग्राम
गुड़- 200 ग्राम
बेसन- 200 ग्राम
बड़े पेड़ के तने के पास की मिट्टी- 50 ग्राम

बनाने की विधि:
सर्वप्रथम कोई प्लास्टिक की टंकी या सीमेंट की टंकी लें फिर उस पर 40 लीण् पानी डाले। पानी में 2 किलोग्राम गाय का गोबर व 2 लीटर गोमूत्र एवं 200 ग्राम गुड़ मिलाएं। इसके बाद 200 ग्राम बेसनए 50 ग्राम मेड़ की मिट्टी डालें और सभी को डंडे से मिलाएं। इसके बाद प्लास्टिक की टंकी या सीमेंट की टंकी को जालीदार कपड़े या बोरी से बंद कर दे। अब हम इस तैयार घोल को रोजाना 3 दिन तक सुबह-शाम डंडे से घड़ी की सूई की दिशा में 2-3 मिनट तक घोलेंगे और तीन दिन के बाद यह तैयार हो जाएगा। तैयार जीवामृत का प्रयोग दो सप्ताह तक किया जा सकता है। 

सप्तधान्यांकुर बनाने की विधिः
एक छोटी कटोरी लें और इसमें तिल के 200 ग्राम साबुत दाने डाल दें। अब इसमें इतना पानी डालें की सारे तिल पानी में डूब जाएं। इसके बाद इसे घर के अंदर 24 घंटे के लिए रख दें। दूसरे दिन सुबह, एक और बड़ा कटोरा लें। इसमें बारी-बारी से मंूग, उड़द, रौंगी, मसूर, गेहूं और चना के साबुत दानें 100-100 ग्राम के हिसाब से डालकर मिला दें। इसके बाद इस कटोरे में इतना पानी डालें कि सभी दाने पानी में डूब जाएं। अगले दिन सातों प्रकार के भीगे दाने पानी से निकाल लें। उसके बाद इन सभी को एक गीले कपड़े में पोटली बनाकर अंकुरण के लिए घर के अंदर टांग दें। जिस पानी में सातों प्रकार के दाने भिगोए थे उसको सुरक्षित रखें। जिस दिन पोटली में रखे दानों में से एक सेंटीमीटर अंकुर बाहर निकल आएंगे, उस दिन उन्हें पोटली से निकालकर, सिल्ल-बट्टे में पीसकर इनकी चटनी बनाऐं।
अब एक ड्रम में 40 लीटर पानी, 2 लीटर गोमूत्र तथा दानों को भिगोने के बाद बचे हुए पानी को मिला दें। इसके बाद उंगलियों से सिल्ल-बट्टे में बनाई हुई चटनी को भी इसमें मिला दें। घोल को लकड़ी के डंड़े से घड़ी की सूई दिशा में 2-3 मिनट के लिए घुमाकर बोरी से ढ़क दें। इसे 2 घंटे छाया में रखने के बाद कपड़े से छान लें। 

5 बीघा के लिए जंगल की कंडी की निर्माण विधी:
गाय के सूखे गोबर का पाउडर बनाकर इसे एक कपड़े की पोटली में बांधे। इसके बाद इस पोटली को रस्सी की सहायता से एक 200 लीटर पानी की टंकी में लटका कर 48 घंटे तक रहने दें। इस दौरान पोटली को दिन में दो-तीन बार अच्छे से पानी में निचोड़ लें और वापस वैसे ही रहने दें। 48 घंटे के बाद यह तैयार है और इसका प्रयोग फसल पर 48 घंटे के भीतर कर लें।

सोंठास्त्र की निर्माण विधी:
एक पतीले में 2 लीटर पानी और उसमें 200 ग्राम सौंठ पाउडर डालें। इसको अच्छे से मिलाकर तब तक उबालें तब तक कि यह घटकर आधा न हो जाए। दूसरे पतीले में 2 लीटर दूध लें और इसे एक उबाली आने के बाद ठंडा होने के लिए रख लें। इसके बाद इस दूध की मलाई निकाल लें और दूध निकाले हुए इस दूध और आधे बचे सौंठ के घोल को 200 लीटर पानी में मिलाकर 48 घंटे के भीतर फसल पर स्प्रे कर लें। 

प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना के कार्यकारी निदेशक प्रो. राजेश्वर सिंह चंदेल ने बताया कि प्राकृतिक विधि से घर में तैयार की गए आदानों को यदि किसान सही समय पर प्रयोग में तय मानकों के आधार पर प्रयोग में लाते हैं तो सेब के पत्तों के पतझड़ रोग और स्कैब पर आसानी से नियंत्रण पाया जा सकता है। इसके अलावा इन आदानों को तैयार करने के लिए बाजार पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है घर में मौजूद वस्तुओं से ही इन्हें आसानी से तैयार किया जा सकता है।

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