शोध में खुलासा, अधिक उंचाई वाले क्षेत्रों की ओर शिफ्ट हो रही सेब बागवानी
रोहित पराशर
सेब बागवानी हिमाचल प्रदेश की रीढ़ है और अकेला सेब प्रदेश की जीडीपी में 3.5 फीसदी योगदान करता है। सेब बागवानी हिमाचल प्रदेश के लिए कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा प्रदेश में हर साल 4 करोड़ सेब की पेटियों के उत्पादन के साथ 5 हजार करोड़ रूपये का कारोबार से लगाया जाता है। ऐसे में लोगों के रोजगार और उनकी आर्थिकी से सीधे तौर पर जुड़ी सेब बागवानी को भविष्य के लिए बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है। हाल ही में हिमाचल प्रदेश में सेब के बागीचों के अधिक उंचाई वाले क्षेत्रों की ओर शिफ्ट होने को लेकर हुए शोध में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। प्लस वन जनरल में छपे शोध में भारत, कनाडा और जापान के वैज्ञानिकों ने पाया है कि जलवायु परिवर्तन और मौसम में आ रहे बदलावों की वजह से सेब बागवानी बड़ी तिव्र गति से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों की ओर शिफ्ट हो रही है। जिससे कम उंचाई वाले क्षेत्रों में सेब बागवानी मुश्किल हो गई है।
शोध के अनुसार हिमाचल प्रदेश में जहां 1980 के दशक में सेब बागवानी 1200 से 1500 मीटर तक की उंचाई वाले क्षेत्रों में होती थी, वो वर्ष 2000 तक 1500 से 2000 मीटर की ऊंचाई वाले क्षेत्रों और वर्ष 2014 तक यह 3500 मीटर तक की ऊंचाई वाले क्षेत्रों तक पहुंच गई है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह इसलिए हुआ है क्योंकि अब उंचाई वाले क्षेत्रों के मौसम में बदलाव की वजह से वो बागवानी के लिए अनुकूल हो गया है। जबकि कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तापमान की बढ़ोतरी की वजह से वहां पर सेब बागवानी के लिए उचित चिलिंग हावर पूरे नहीं हो पा रहे हैं।
चिलिंग आवर में आ रही कमी:
सेब बागवानी के लिए चिलिंग आवर बहुत अहम माने जाते हैं इसलिए इस शोध में चिलिंग आवर को लेकर भी शोध किया गया है। शोध के अनुसार 1975 से 2014 के बीच में दक्षिणी हिमाचल में सर्दियों के दिनों में कमी आने की वजह से 60 चिलिंग आवर में कमी आ गई है। इसके अलावा सालाना वर्षा के घटते क्रम से प्रदेश में तापमान में वृद्धि भी दर्ज की गई है। शोधार्थियों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से बारीश कम हो रही है और तापमान में 0.5 डिग्री तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
शिमला के सेब बागवान प्रशांत सेहटा का कहना है कि पिछले कुछ वर्षाें से जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। उन्होंने बताया कि रेड डिलिसियस जैसी सेब की वैरायटी अब मौसम में बदलावों के कारण खत्म होने के कगार पर है। इसके अलावा उन्होंने कहा कि मौसम में आ रहे बदलावों से कम वर्षा, कम बर्फबारी और घटते ठंडे दिनों की संख्या की वजह से सेब बागवानी पर बहुत बुरे असर पड़ रहे हैं। इससे जहां उत्पादन पर असर पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर तापमान में बढ़ोतरी के साथ नई बीमारियों और फलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट पंतगों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है। इसकी वजह से बागवानों को इनमें नियंत्रण के लिए रसायनिक दवाइयों और कीटनाशकों को प्रयोग करना पड़ रहा है। जिससे बागवानों की लागत में बढ़ोतरी हो रही है और उनका मुनाफ़ा कम होता जा रहा है।
मित्र किटों में भी कमी
फलों में रसायनों के बढ़ते प्रयोग के साथ जहां मित्र कीट जैसे मधुमख्खियां और अन्य कीटों की संख्या में 90 फीसदी से अधिक कमी आ चुकी है। इसके अलावा रसायनों के अधिक प्रयोग से फलों में इनके अवशेष होने की वजह से मनुष्य में कैंसर और अन्य कई खतरनाक बीमारियों का खतरा बढ़ गया है।
शोध में चेताया गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से अभी तक जो बदलाव देखे गए हैं वो अभी तक इतने भयावह नहीं हैं, जितने की निकट भविष्य में देखने को मिलेंगे। शोध में बताया गया है कि उतरी हिमाचल में मौसम बागवानी के लिहाज से सही है, लेकिन यह भी अधिक समय तक ऐसा नहीं रहने वाला है। इसलिए जियोइंजिनियरिंग की ओर जाने की जरूरत पर शोधार्थियों ने बल दिया है। इन सभी दर्शनीय तथ्यों को ध्यान में रखते हुए भविष्य के लिए सेब बागवानी को बचाए रखने के लिए हमें अभी से जलवायु परिवर्तन के प्रति संजीदा होने की जरूरत है और इससे निपटने के लिए अभी से तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।