ग्लेशियर पिघलने से बढ़ा झीलों का आकार ,मच सकती है भारी तबाही…

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और अनुसंधान के लिए विज्ञान प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण राज्य परिषद और जलवायु परिवर्तन केंद्र जता चुका है चिंता, पहले भी ढा चुकी हैं कहर

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पर्यावरण और जलवायु में लगातार हो रहे बदलावों के चलते ग्लेशियरों के पिघलने का क्रम तेजी से जारी है। जिससे सदियों पुराने ग्लेशियर बड़ी ही तीव्र गति से पिघल रहे हैं। इन पिघलते ग्लेशियरों से हिमालयन रिजन के हिमाचल प्रदेश में कई नई झिलों के निर्माण के साथ पुरानी झिलों के आकार में बेेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है जो भयानक बाढ़ की ओर संकेत कर रही है। हाल ही में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और अनुसंधान के लिए विज्ञान प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण राज्य परिषद और जलवायु परिवर्तन केंद्र ने हिमाचल प्रदेश के तीन रिवर बेसिन सतलुज, चिनाब और ब्यास को लेकर चैंकाने और चेताने वाले आंकड़े जारी किए हैं। जलवायु परिवर्तन केंद्र की ओर से जारी किए गए आंकडों के अनुसार हिमाचल प्रदेश के तीन रिवर बेसिन में 897 झिलें पाए गई हैं। जिनके दायरे में पिछले साल के मुकाबले वृद्धि दर्ज की गई है। यदि ग्लेशियरों के पिघलने का क्रम ऐसा ही जारी रहा तो इन झिलों के आकार में और वृद्धि होना तय है जिससे भविष्य में भयानक बाढ़ की संभावनांए बढ़ जाती हैं। जलवायु परिवर्तन राज्य केंद्र द्वारा 2019 में किए गए शोध के आधार पर वर्ष 2019 में सतलुज बेसिन में 562 झीलों की उपस्थिति दर्ज की गई है, जिनमें से लगभग 81 प्रतिशत (458) झीलें 5 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल की है, 9 प्रतिशत (53) झीलें 5 से 10 हेक्टेयर क्षेत्रफल और 9 प्रतिशत (51) झीलें 10 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल की हैं। इसके अलावा चिनाब घाटी जिसमें चंद्रा, भागा और मियार सब बेसिन है, इनमें लगभग 242 झीलें हैं। चंद्रा में 52, भागा में 84 और मियार सब बेसिन में 139 झीलें हैं। वहीं ब्यास घाटी जिसमें उपरी ब्यास, जीवा, पार्वती घाटियां सम्मिलत हैं, में 93 झीलें हैं। ऊपरी ब्यास में 12, जीवा में 41 और पार्वती सब बेसिन में 37 झीलें हैं। केंद्र द्वारा कहा गया है कि वर्ष 2018 की तुलना में 2019 में लगभग 43 प्रतिशत वृद्धि के संकेत दर्ज किए गए हैं।
पर्यावरण विज्ञान और प्रौद्योगिकी सचिव रजनीश ने कहा कि विभाग हिमालय में बर्फ पिघलने के कारण बनी सभी ग्लेशियर झीलों की मैपिंग करने की कार्य योजना बना रहा है। इन झीलों में काफी मात्रा में पानी होने के कारण यह भविष्य में नुकसानदेह साबित हो सकती हैं। उन्होंने कहा कि 2014 में भारी बारिश के साथ चोराबरी ग्लेशियर के आगे बनी छोटी-सी झील के फटने के कारण केदारनाथ जैसी त्रासदी हुई थी। इसलिए इस केन्द्र द्वारा हिमाचल प्रदेश में विभिन्न बेसिन और सतलुज नदी के निकटवर्ती तिब्बत जलग्रह की स्पेस डाटा के माध्यम से ग्लेशियर के कारण बाढ़ की घटनाओं को समझने के लिए ग्लेशियर झीलों की नियमित निगरानी की जा रही है।
गौर रहे कि हिमाचल प्रदेश बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के लिए अतिसंवेदनशिल राज्यों की श्रेणी में से एक है और यहां कई कारणों से बाढ़ की स्थितियां उत्त्पन्न होती रहती है। सतलुज घाटी में वर्ष 2000 में भारी बाढ़ आई थी, जिससे 800 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ था। वहीं 2005 में भी सतलुज में आई भारी बाढ़ के दौरान सतलुज के जलस्तर 50 मिटर से उपर पहुंच गया था जिससे भारी तबाही हुई थी। इसके अलावा ऊचाॅई वाले क्षेत्रों में भू-स्खलन से पारछू जैसी झील बनने से निचले क्षेत्रों में जल बहाव से भारी नुकसान का खतरा पैदा हो चुका है। इसलिए यह महत्वपूर्ण हो गया है कि उपरी जल ग्रहण क्षेत्रों की अन्तरराष्ट्रीय आयाम के आधार पर निरंतर और लगातार निगरानी की जाए।


विशेषज्ञों की मानें तो हिमाचल प्रदेश में हिमालय क्षेत्र और इसके साथ लगते तिब्बितयन हिमालय क्षेत्र के ऊॅचे क्षेत्रों में झील बनने की प्रवृति में तेजी आई है। सदस्य सचिव हिमकोस्ट व निदेशक एवं विशेष सचिव राजस्व और आपदा प्रबन्धन डीसी राणा का कहना है कि ऊपरी हिमालय क्षेत्र में झील बनने की घटनाओं पर परम्परागत तरीकों से नजर रखना सम्भव नहीं है। इसलिए इन क्षेत्रों में जांच के लिए स्पेस तकनीक का प्रयोग किया जाना चाहिए। उन्होंने बताया कि हिमकोस्ट का पर्यावरण परिवर्तन केन्द्र झीलों की मैपिंग और निगरानी कर रहा है। इससे हिमाचल व साथ लगते तिब्बितयन हिमालय क्षेत्र में ऐसी सभी संवेदनशील झीलों के पूर्व आंकलन में मदद मिल रही है और यदि भविष्य में कोई बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन होती है तो इससे निपटने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं।  
विशेषज्ञों का कहना है कि 10 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र और 5 से 10 हेक्टेयर क्षेत्र की झीलों को नुकसान के दृष्टिगत संवेदनशील क्षेत्र के रूप में देखा जाता है। इनके फटने की स्थिति के मददेनजर राज्य के हिमालय क्षेत्र में पर्याप्त निगरानी और परिवर्तन विश्लेषण आवश्यक है, ताकि हिमाचल प्रदेश में भविष्य में बाढ़ जैसी किसी भी घटना को रोक कर बहुमूल्य जीवन व संपदा को बचाया जा सके। झिलों के आकार में निगरानी रखने के साथ रिवर बेसिन से सटे लोगों को भविष्य के खतरों के लिए तैयार रहने और इससे निपटने के लिए प्रशिक्षण देने की जरूरत पर बल देना चाहिए।
पर्यावरणविद कुलभुषण उपमन्यू का कहना है कि हिमालय क्षेत्र में बन रही झिलें भविष्य के लिए बहुत बड़ी चिंता का विषय है। उन्होंने कहा कि अभी भी सरकारों ने अपने डेवल्पमेंटल माॅडल में बदलाव नहीं लाया तो ग्लेशियर के पिघलने की गति में और अधिक वृद्धि हो जाएगी जिससे रिवर बेसिन पर बन रही झिलों के आकार में और अधिक बढ़ोतरी हो जाएगी। इसलिए ग्लोबल वार्मिंग को ध्यान में रखते हुए नितियों को निर्माण करने की जरूरत है।

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