
हिमाचल प्रदेश के शिमला से 130 किलोमीटर दूर राजा प्रद्युम्न द्वारा स्थापित रामपुर बुशैहर सतलुज नदी के किनारे समुद्र तल से 924 मीटर की ऊंचाई पर बसा एक सुंदर पर्वतीय स्थान है। साथ-साथ बहती सतलुज नदी, बर्फ से ढके पहाड़ ,राजमहल इस क्षेत्र की भव्यता,सुंदरता और महत्ता को बढ़ा देते हैं। इन सबके अलावा रामपुर क्षेत्र की खास बातों में यहां सदियों से मनाए जाने वाला लवी मेला है। रामपुर लवी मेले के कारण देश-विदेश में भी प्रसिद्ध है। व्यापारिक दृष्टि से मनाए जाने वाले इस मेले में रामपुर के अलावा अन्य क्षेत्रों से भी व्यापारी आते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप ले चुका यह लवी मेला ऐतिहासिक व्यापारिक मेला है और प्रदेश के पुरातन इतिहास, समृद्ध परंपरा और संस्कृति का प्रतीक है।
यह मेला रामपुर बुशैहर में प्रतिवर्ष 11 नवंबर से लगातार 14 दिन तक मनाया जाता है। प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र में पुरातन समय से विदेशों से व्यापार की परंपरा बहुत पुरानी रही है। कुल्लू दशहरा और रामपुर लवी मेला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इन मेलों से लोग साल भर के लिए आर्थिक संसाधनों का विकास करते थे और अपने साल भर की आवश्यक वस्तुओं की खरीददारी कर लिया करते थे। अत्याधिक शीत और हिमपात के कारण जनजातीय क्षेत्रों में ऐसे अवसरों पर ही जरूरी वस्तुएं खरीद कर रख ली जाती थीं, जिससे साल भर गुजारा किया जाता था। व्यापार मेले में कर मुक्त व्यापार होता था। लवी मेले में किन्नौर, लाहौल-स्पीति, कुल्लू और प्रदेश के अन्य क्षेत्रों से व्यापारी पैदल पहुंचते थे। वे विशेष रूप से ड्राई फ्रूट, ऊन, पशम और भेड़-बकरियों सहित घोड़ों को लेकर यहां आते थे। बदले में व्यापारी रामपुर से नमक, गुड़ और अन्य राशन लेकर जाते थे। लवी मेला चामुर्थी घोड़ों के कारोबार के लिए भी जाना जाता रहा है। ये घोड़े पहले उत्तराखंड से लाए जाते थे।

तिब्बत की संधि से जुड़ा है लवी मेले का इतिहास:
लवी मेले का इतिहास बुशैहर रियासत के प्रसिद्ध शासक केहरि सिंह से जुड़ता है। वे इस रियासत के 113वें शासक थे और उन्होंने 1639 ई० से 1696 ई० तक यहां शासन किया। ये बहुत ही शक्तिशाली शासक हुए। उन्होंने अपने शासनकाल में कुमारसेन, कोटगढ़, बालसन, ठियोग और दरकोटी जैसी छोटी-छोटी रियासतों को जीतकर इन पर अपना अधिपत्य स्थापित किया। केहरि सिंह ने बड़ी रियासतों में मंडी, सुकेत और गढ़वाल रियासतों पर भी अपना अधिपत्य स्थापित किया। इसके बाद मुगल शासक औरंगजेब के राज्यों में भी अपना प्रभुत्व स्थापित किया। राजा केहरि सिंह की बहादुरी के कारण बाद में उनको छत्रपति की उपाधि भी प्रदान की गयी। दक्षिण की रियासतों के साथ मेल-जोल बढ़ाने के बाद राजा केहरि सिंह ने अपना सैन्य अभियान तिब्बत की ओर शुरू किया। इस अभियान के लिए स्थानीय शासक उनका साथ देने को तैयार नहीं थे इसलिए उन्होंने सन् 1681 ई० में अपनी एक बहुत बड़ी सेना को असैनिकों के वेश में तैयार करके तिब्बत की ओर कूच किया और इस प्रकार नाटक किया जैसे वे तीर्थयात्रा के लिए कैलाश के मानसरोवर जा रहे हों। इसी समय तिब्बत एवं लद्दाख में सीमा-विवाद चला हुआ था जोकि 1681 ई०से 1683 ई० में एक युद्ध में परिवर्तित हो गया। 1681 ई० में दोनों देशों में होने वाले इस युद्ध में तिब्बत की सेना का नेतृत्व जनरल गाल्दन त्सेवांग कर रहे थे। राजा केहरि सिंह इस समय अपने सैनिकों सहित एक तीर्थ यात्री के रूप में मानसरोवर में ठहरे हुए थे। तिब्बत जनरल ने उनसे सहायता करने का अनुरोध किया। बुशैहर के राजा ने इसे तुरंत स्वीकार कर लिया। इस दौरान दोनों शासकों के बीच में एक समझौता हुआ जिसमें यह निश्चित हुआ कि दोनों शासकों के बीच मित्रता बनी रहेगी। साथ ही दोनों देशों के व्यापारियों को एक दूसरे के देश में बिना किसी अतिरिक्त कर के माल लाने की छूट दी गई। इस संधि को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए तिब्बत नरेश की ओर से बुशैहर नरेश को घोड़े तथा बुशैहर नरेश की ओर से तिब्बत नरेश को तलवारों का आदान-प्रदान हुआ। इस संधि के बाद से ही दोनों देशों में व्यापार होने लगा और लवी मेला कामरू या सराहन में मनाया जाने लगा। इन दिनों रामपुर बुशैहर का कोई नामो निशान नहीं था। दोनों नरेशों के बीच हुए समझौते पर प्रोफेसर एल. पैच ने अपनी किताब ‘‘इंडियन हिस्टोरिकल क्वालिटी’’ के वाॅल्युम 23 में अपने एक लेख में बड़े ही रोचक ढंग से लिखा है कि तिब्बत एवं लद्दाख के बीच होने वाले युद्ध के साथ ही तिब्बत एवं बुशैहर के नरेशों के बीच समझौता हुआ तथा दोनों ने एक दूसरे के दूत भेजने स्वीकार किए। 1684ई0 में दोनों देशों के नरेशों के मध्य तिंगगोस गोंड में एक अन्य समझौता हुआ जिसके अनुसार तिब्बत के शासक पांचवें दलाईलामा ने राजा केहरी सिंह को ऊपरी किन्नौर का क्षेत्र दे दिया जोकि तिब्बत ने लद्दाख से छीना था।