शिमला। हिमाचल में भाजपा प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई थी। दो साल का अर्सा भी नहीं हुआ कि सरकार के समक्ष विधानसभा उपचुनाव की परीक्षा आ गई। इससे पहले लोकसभा चुनाव में पीएम नरेंद्र मोदी की आंधी ने हिमाचल में भी भाजपा को क्लीन स्वीप करवाया, लेकिन असल परीक्षा दो सीटों पर विधानसभा उपचुनाव हैं। पच्छाद और धर्मशाला में जिस तरह से सत्ता धारी भाजपा के सामने बागियों ने चुनौती पेश की है, वो जयराम सरकार के लिए लिटमस टैस्ट साबित होगा। राजनीतिक गलियारों में इस बात की जोर-शोर से चर्चा है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि पूर्ण व प्रचंड बहुमत वाली सरकार और विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी से दो बागी नहीं मनाए गए? कई राजनीतिक पंडित तो इसे सरकार व संगठन के लिए शर्मनाक स्थिति भी बता रहे हैं। लेकिन ये भी चर्चा है कि कहीं जमीन से जुड़े राजनेता जयराम ठाकुर के खिलाफ कुछ ताकतें तो नहीं इकट्ठा हो रहीं? ये सही है कि ईमानदार प्रयास और साफ-सुथरा प्रशासन देने के सीएम जयराम ठाकुर के वादे और दावे को लोग मान रहे हैं, परंतु जमीन पर भी लोग परिणाम चाहते हैं।
बात सिरमौर के पच्छाद की करें तो यहां दयाल प्यारी बागी होकर मैदान में है। आशीष सिक्टा को तो पार्टी ने जैसे-तैसे मना लिया, लेकिन दयाल प्यारी को मनाने के प्रयास सफल नहीं हुए। हालांकि आशीष सिक्टा एपिसोड ने भी भाजपा की छवि को नुकसान पहुंचाया। टिकट की दावेदार दयाल प्यारी भी थी। पार्टी को ऐसी आशा थी कि दयाल प्यारी को मना लिया जाएगा, परंतु ये संभव नहीं हुआ। अब दयाल प्यारी मैदान में है और ये घटनाक्रम भाजपा के लिए सिरदर्द साबित होगा। ये तथ्य गौर करने लायक है कि भाजपा के पास संगठन व सरकार की ताकत है, लेकिन यदि दयाल प्यारी अच्छी-खासी संख्या में वोट बटोर ले जाती है तो भी ये भाजपा की हार ही होगी। दयाल प्यारी के साथ सहानुभूति वाला फैक्टर भी काम कर रहा है। लोगों को भूला नहीं है कि किस तरह सिरमौर में एक जनसभा में मंच पर दयाल प्यारी से बुरा सलूक हुआ था। पार्टी के युवा नेता और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में संघर्ष से निकले आशीष सिक्टा भी कड़वी यादें लेकर दावेदारी से हटे हैं। कहीं न कहीं उनके मन में भी खटास है। ऐसे में सिरमौर के पच्छाद में भाजपा की एक मोर्चे पर हार तो हुई ही है और वो मोर्चा है-बागियों को मनाने में नाकाम रहना। यही हाल धर्मशाला का भी है। वहां भी बागियों ने नाक में दम किया है। राकेश चौधरी रूपी चुनौती से पार पाना भाजपा के लिए बेशक संगठन व सरकार के बूते आसान हो, लेकिन चौधरी ने जो तीर चलाया है, उसका घाव पार्टी को जरूर झेलना होगा। आखिर ऐसा क्यों हुआ कि दो साल से भी कम समय में भाजपा जैसे अनुशासित दल को हिमाचल में ये सब देखना पड़ रहा है?
गुटबाजी तो हर दल में होती ही है। फिर वो कम हो या अधिक। भाजपा में भी पहले शांता-धूमल गुट के साथ जेपी नड्डा गुट चर्चा में रहते आए हैं। अब सत्ता बदली है तो समीकरण भी बदले हैं। प्रेम कुमार धूमल को सुजानपुर के रण में पराजय का मुंह देखना पड़ा। उसके बाद से प्रदेश में जयराम युग का समय आया। सत्ता के शीर्ष पर जयराम ठाकुर के लिए ये नया अनुभव है। बेशक वे पहले कैबिनेट मंत्री रहे हैं, लेकिन पूरे प्रदेश को संभालना एक अलग बात है। जयराम ठाकुर के पास साफ छवि, ईमानदार कोशिश और अपेक्षाकृत युवा चेहरा है। वे जमीन से जुड़े और विनम्र नेता माने जाते हैं। उनकी ये खूबी विरोधियों को नतमस्तक करती है। ऐसे में ये भी चर्चा है कि कहीं बागियों की राजनीति के पीछे किसी गुट विशेष का हाथ तो नहीं। हालांकि संगठन की मजबूती और सरकार की ताकत के कारण भाजपा के लिए दोनों सीटें एक तरह से आसान टारगेट हैं, लेकिन बागियों को मना कर बिठाने में नाकाम रहने से नेतृत्व पर सवाल जरूर उठे हैं। देखना है कि जयराम ठाकुर और संगठन इस लिटमस टैस्ट से कैसे सुर्खरू होकर निकलते हैं। सरकार के कैबिनेट मंत्री पूरी तरह से मोर्चे पर डटे हैं। धर्मशाला में नैहरियां और पच्छाद में रीना कश्यप को संगठन व सरकार का खूब सराहा मिल रहा है। और हां..ये उपचुनाव एबीवीपी के युवा खून के जोश और गर्म तेवरों के लिए भी याद रखा जाएगा।