By- Raman Kant
सेब बागवानी हिमाचल प्रदेश की आर्थिकी की रीढ़ है और अकेला सेब प्रदेश की जीडीपी में 3.5 फीसदी योगदान करता है। सेब बागवानी हिमाचल प्रदेश के लिए कितनी महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा प्रदेश में हर साल 4 करोड़ सेब की पेटियों के उत्पादन के साथ 5 हजार करोड़ रूपये का कारोबार से लगाया जा सकता है। ऐसे में लोगों के रोज़गार और उनकी आर्थिकी से सीधे तौर पर जुड़ी सेब बागवानी को भविष्य के लिए बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है। सेब बागवानी क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश में लाखों लोग प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से रोज़गार पा रहे हैं। गौर रहे कि देश में बेरोजगार युवाओं की सबसे अधिक संख्या वाले शीर्ष के दस राज्यों में से हिमाचल प्रदेश एक है। ऐसे में सेब बागवानी क्षेत्र भी एक ऐसा क्षेत्र है जो सेब सीजन के दौरान लाखों युवाओं को रोजगार मुहैया करवाता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण सेब बागवानी के समझ अनेक चुनौतियाँ और खतरे पैदा हो गए हैं। मौसम में हो रहे बदलावों से जहां सेब बागवानी के लिए अहम माने जाने वाले चिलिंग आवर कम होने से पैदावार पर असर तो पड़ ही रहा है, साथ में फल-पौधों में बीमारियाँ अधिक आने से इनसे निपटने के लिए बागवानों की लागत में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है।
वहीं सेब उत्पादन में हर साल की अस्थिरता और घटता उत्पादन भी नई चुनौतियाँ ला रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण, कम वर्षा, कम बर्फबारी, ओलावृष्टी और ओलों के आकार में बढ़ोतरी के कारण बागवानों की चिंताएं बढ़ने लगी हैं। हाल ही में हिमाचल प्रदेश में सेब के बागीचों के अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों की ओर शिफ्ट होने को लेकर हुए शोध में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। प्लस वन जनरल में छपे शोध में भारत, कनाडा और जापान के वैज्ञानिकों ने पाया है कि जलवायु परिवर्तन और मौसम में आ रहे बदलावों की वजह से सेब बागवानी बड़ी तीव्र गति से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों की ओर शिफ्ट हो रही है। जिससे कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में सेब बागवानी मुश्किल हो गई है। शोध के अनुसार हिमाचल प्रदेश में जहां 1980 के दशक में सेब बागवानी 1200 से 1500 मीटर तक की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में होती थी, वो वर्ष 2000 तक 1500 से 2000 मीटर की ऊंचाई वाले क्षेत्रों और वर्ष 2014 तक यह 3500 मीटर तक की ऊंचाई वाले क्षेत्रों तक पहुंच गई है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि यह इसलिए हुआ है क्योंकि अब ऊंचाई वाले क्षेत्रों के मौसम में बदलाव की वजह से वो बागवानी के लिए अनुकूल हो गया है। जबकि कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तापमान की बढ़ोतरी की वजह से वहां पर सेब बागवानी के लिए उचित चिलिंग हावर पूरे नहीं हो पा रहे हैं। सेब बागवानी के लिए चिलिंग आवर बहुत अहम माने जाते हैं इसलिए इस शोध में चिलिंग आवर को लेकर हुए एक शोध के अनुसार 1975 से 2014 के बीच में दक्षिणी हिमाचल में सर्दियों के दिनों में कमी आने की वजह से 60 चिलिंग आवर में कमी आ गई है। इसके अलावा सालाना वर्षा के घटते क्रम से प्रदेश में तापमान में वृद्धि भी दर्ज की गई है। शोधार्थियों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से बारीश कम हो रही है और तापमान में 0.5 डिग्री तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले में अधिकतर सेब बागवानी की जाती है। शिमला के सेब बागवान प्रशांत सेहटा का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। उन्होंने बताया कि रेड डिलिसियस जैसी सेब की वैराईटी अब मौसम में बदलावों के कारण खत्म होने के कगार पर है। इसके अलावा उन्होंने कहा कि मौसम में आ रहे बदलावों से कम वर्षा, कम बर्फबारी और घटते ठंडे दिनों की संख्या की वजह से सेब बागवानी पर बहुत बुरे असर पड़ रहे हैं। इससे जहां उत्पादन पर असर पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर तापमान में बढ़ोतरी के साथ नई बीमारियों और फलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट पंतगों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है। इसकी वजह से बागवानों को इनमें नियंत्रण के लिए रसायनिक दवाइयों और कीटनाशकों को प्रयोग करना पड़ रहा है। जिससे बागवानों की लागत में बढ़ोतरी हो रही है और उनका मुनाफ़ा कम होता जा रहा है।
कीट वैज्ञानिक प्रो राजेश्वर सिंह चंदेल ने अपने अनुसंधानों में पाया है कि कृषि और बागवानी के मधुमक्खियांे की अहम भूमिका रहती है। लेकिन फलों में रसायनों के बढ़ते प्रयोग के साथ मित्र कीट जैसे मधुमक्खियों और अन्य कीटों की संख्या में 90 फीसदी से अधिक कमी आ चुकी है। उनका मानना है कि प्राकृतिक मधुमक्खियों की कई प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। इसलिए अब बागवानों को पोलिनेशन के लिए बाहरी राज्यों से लाखों बक्से मंगवाने पड़ते हैं, जिनके लिए उन्हें लाखों रूपये खर्च करने पड़ रहे हैं। इससे बागवानों के मुनाफ़े में कटौती हो रही है।
महान पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा के सहयोगी रहे चुके पर्यावरणविद् कुलभुषण उपमन्यू का मानना है कि हिमाचल प्रदेश में ओलावृष्टी की घटनाओं में बढ़ोतरी और इनके साइज और समय में बढ़ोतरी हुई है। उन्होंने इसके पिछे मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन को बताया है। पिछले 5 दशकों तक पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले कुलभुषण उपमन्यू ने माना है कि हिमालय रिजन में मैदानी और अन्य क्षेत्रों के मुकाबले में तापमान अधिक गति से बढ़ रहा है। हिमालयन रिजन अन्य क्षेत्रों के मुकाबले में अधिक संवेदनशील है और इसी की वजह से यहां पर पर्यावरण के बदलावों को बड़े जल्दी देखा जा रहा है। पिछले एक दशक में हिमाचल में अधिक बारीश, कम बारीश, बर्फबारी, ओलावृष्टी की घटनाओं में अधिक वृद्धि देखी गई है। इसके पिछे मुख्य कारण पहाड़ों में हो रहा अंधाधुंत निर्माण कार्य, डैम निर्माण, विकासात्मक गतिविधियों के लिए पेड़ो को काटना और पर्यटन गतिविधियाँ बढ़ने से वाहनों की संख्या में बढ़ोतरी से कार्बन उत्सर्जन अधिक बढ़ गया है। जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है और ओलों के साइज में बढ़ोतरी के साथ अधिक वर्षा की घटनाएँ देखने को मिल रही हैं। इन सभी घटनाओं का ख़ामियाज़ा कृषि और बागवानी क्षेत्र को विशेष तौर पर भुगतना पड़ रहा है।
बेमौसमी बारीश और ओलावृष्टी का सबसे अधिक नुकसान सेब बागवानी को उठाना पड़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में ओलावृष्टी के क्रम में अनिश्चितता और इसकी घटनाओं में वृद्धी देखी गई है। जिससे फसलों और खासकर फलों को अधिक नुकसान पहुंच रहा है। गौर रहे कि कुछ वर्ष पूर्व तक ओला मई माह तक ही आता था और इस दौरान फल के पेड़ों में अभी फल बने नहीं होते थे, जिससे उन्हें नुकसान नहीं पहुँचता था। अप्रैल-मई में फलों का साइज बढ़ना शुरू हो गया होता है और इस दौरान फल वाॅलनट साइज के हो जाते हैं। ऐसे समय में बड़े आकार का ओला आने से फल झड़ने के साथ फलों में लाल रंग के धब्बे पड़ जाते हैं, जिससे मार्केट में इसे अच्छा रेट नहीं मिल पाता। इसके अलावा मई में ओलों के बड़े साइज से फलों को तो नुकसान होता ही है साथ ही पेड़ों को भी भारी नुकसान पहुँचता है। जिससे अगले वर्ष की क्राॅप पर भी असर पड़ता है।
मौसम विभाग की ओर से जारी रिपोर्ट के अनुसार मार्च से 31 मई तक रिकार्ड बारिश दर्ज की गई है। इस रिपोर्ट में 31 मई 2020 को हुई बारीश पिछले 33 वर्षों में सबसे अधिक आंकी गई है। यह बारिश ऐसे समय में अधिक हुई है जब फलों में फलावरिंग और सेटिंग का समय होता है और ऐसे समय में अधिक वर्षा सही नही मानी जाती है। जिसका असर फलोत्पादन पर सीधे तौर पर पड़ता है।
मौसम और जलवायु में आ रहे बदलावों के कारण सेब बहुल क्षेत्रों में नई बीमारियों और कीटों का आगमन हुआ है। जिससे बागवानों ने रसायनों और कीटनाशकों के प्रयोग को बढ़ा दिया है। रसायनों के अधिक प्रयोग से फलों में इनके अवशेष होने की पूष्टी कई वैज्ञानिक शोधों में हो चुकी है। इनकी वजह से मनुष्य में कैंसर और अन्य कई खतरनाक बीमारियों का खतरा बढ़ गया है और उपभोक्ता अब रसायन मुक्त फल- सब्जियों की तलाश में है। ऐसे में बागवानी को बचाने के लिए अभी से प्रयास तेज कर देने चाहिए। विशेषज्ञों की माने तो जलवायु परिवर्तन की वजह से अभी तक जो बदलाव देखे गए हैं वो अभी तक इतने भयावह नहीं हैं, जितने की निकट भविष्य में देखने को मिलेंगे। इसलिए इन सभी दर्शनीय तथ्यों को ध्यान में रखते हुए भविष्य के लिए सेब बागवानी को बचाए रखने के लिए हमें अभी से जलवायु परिवर्तन के प्रति संजीदा होने की जरूरत है और इससे निपटने के लिए अभी से तैयारी शुरू कर देनी चाहिए