■ भाजपा में झोल या झोल में भाजपा…

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● समझ-समझ कर समझ को समझें,यह सियासत है
● इतिहास बताता है कि हाईकमान ने वजन-वजूद देखा है और कुछ नहीं

उदयवीर पठानिया, धर्मशाला

आज खबर आप तलाशेंगे,”दरअसल” सिर्फ वो बताएगा जो आज तक हुआ है। इतिहास में वर्तमान को तोलने का रिवाज रहा है। आप को भविष्य का पता या अंदाज़ा खुद लगाना होगा। जो भी लिखेंगे वही लिखेंगे, जो हुआ है। तो जरा फ्लैशबैक चलते हैं। वह भी सिलसिलेवार…

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साल 2014 से पहले…

साल 2014 में कांग्रेस को दण्ड देने के लिए भाजपा पूरी तरह प्रचंड होने शुरू ही हुई थी। गोआ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी। तय होना था कि लोकसभा चुनाव में किसकी लीडरशिप में होंगे और कौन प्रधानमंत्री पद का चेहरा होगा ? चुनाव से पहले रणनीति तैयार होनी थी। तब के इतिहास के मुताबिक लाल कृष्ण आडवाणी पीएम पद के प्रबल दावेदार थे।

लिहाजा उनकी लॉबी भी थी और लॉबिंग भी थी। स्व सुषमा स्वराज और अब के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह आडवाणी जी के पक्ष में खड़े थे। बावजूद इसके नरेंद्र मोदी का नाम चुनाव प्रचार समिति के वन एंड ऑनली वन फाइनल हुआ और पीएम पद की दावेदारी पर्दे के पीछे चली गई। पोस्टर्स पर अच्छे दिन आएंगे के नारे से वह जनता की ही नजरों में भाजपा का चेहरा बन गए। सरकार बनानी थी तो कोई एज़ फैक्टर का फार्मूला लागू नहीं किया गया।

अघोषित तौर पर बजुर्गों के लिए मार्ग दर्शक मण्डल का खाका तैयार हुआ। चुनावी चेहरों की टीम बनी और लाल कृष्ण आडवाणी,मुरली मनोहर जोशी संग हिमाचल के शांता कुमार भी उम्मीदवार घोषित हो गए। जीत भी गए। उस दौर में शांता जी की उम्र 80 के करीब थी। सरकार बनाने के लिए उम्र नहीं चेहरे जरूरी थे । इसका असर यह हुआ कि मोदी सरकार बन गई और सभी बजुर्गों का कुछ नहीं बना। और तो और साल 2014 में इनके लिए बनने वाला मार्गदर्शक मण्डल आज 2021 तक आधिकारिक तौर पर नहीं बन पाया है।

सेंट्रल गवर्नमेंट मिशन रिपीट
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वक़्त गुजरा और 2019 के लोकसभा चुनाव फिर आ गए। बीते पांच सालों में जबरदस्त काम किया था तो यह मोदी-शाह को यह कन्फर्म हो गया था कि अब की बार फिर मोदी सरकार के नारे पर सरकार रिपीट कर जाएगी। इन पांच सालों में नई टीम भी भाजपा ने खड़ी कर ली और 2019 वाले बजुर्गों का पत्ता साफ कर दिया गया। मकसद था,सरदार मनमोहन सिंह की दो मर्तबा की सरकार बनाने के रिकॉर्ड की बराबरी करना। नई सोच की वजह से 2019 में यह बराबरी भी हो गई।

यह थे इस इतिहास के नतीजे
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2014 से 2021 के बीच की बात करें तो भाजपा ने बाद में केंद्र वाला एज़ लिमिट का फॉर्मूला प्रदेशों में भी लागू किया। मगर यह उस तरह से प्रभावी नहीं हुआ जिस तरह देश के आसमान पर छाया था। कई प्रदेशों में इसके नतीजे उलट रहे। कहीं भाजपा की सरकारें बनती-बनती रह गईं तो कई जगह बहुमत का आंकड़ा तोड़-फोड़ करके जुटाना पड़ा। यह प्रदेश ज्यादातर वही थे या तो यहां भाजपा की 70 प्लस की लीडरशिप थी,या फिर कांग्रेस मजबूत थी। फॉर्मूला अनफिट हो गया। कर्नाटक में तो 80 प्लस के यदुरप्पा को सीएम बनाना पड़ा। यानि देश भर में पकड़ का परचम लहराने को जोश की जगह होश वालों की जरूरत पड़ी है। एमपी में मामा शिवराज को कांग्रेसी बगावत के सहारे सीएम बनाया।

अब आइए वर्तमान में
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राष्ट्रीय आसमान के बाद अब जिक्र करते हैं,नन्हे से राज्य हिमाचल का। यहां सरकार होने के बावजूद स्टेट लेवल की लीडरशिप का फ्लैग नहीं लहरा पाया है। शांता कुमार पिछले कुछ अरसे से किताबों की दुनिया में खोए हुए हैं। जबकि सियासी उम्र और सियासत के लिहाज से टोटली फिट और भाजपा के भीतर फिट प्रो धूमल एकदम चुप बैठे हुए हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस बार के माहौल में भाजपा का राष्ट्रीय सम्मान,आन-बान हिमाचली जेपी नड्डा हैं। इससे भी बड़ी बात कि अमित शाह 2017 में यह ऐलान हिमाचल में कर के गए थे कि अब उस इतिहास को बदला जाएगा कि पांच साल बाद भी हिमाचल में भाजपा की सरकार न बदले और अगले कम से कम 15 साल तक यह कायम रहे। सवाल यह हैं कि क्या ऐसा हो पाएगा ? नड्डा के ताज और शाह की आस सुरक्षित हैं ?

यह हैं उलझन और सुलझन बीजेपी में…
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हिमाचल में अभी तक बीजेपी की ताकत सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस की कमजोरी ही है। सबसे बड़ा फर्क यह है कि कांग्रेस के पास संगठन नाम की चिड़िया नहीं है और भाजपा के पास बाज जैसी संगठनात्मक ताकत है। पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या यह काफी है ? जमीनी हकीकत यह भी है कि भाजपाई तराजु में सरकार का पलड़ा उतना ही हल्का है जितना संगठन का भारी है । आम वोटर सीधा सरकार के साथ जुड़ा होता है न कि पार्टियों के संगठन से। अच्छा होगा तब भी सरकार और बुरा होगा तब भी सरकार के सिर ही सेहरा बंधता है। सरकार के फैसलों और संगठन से फासलों में जनता का तराजु डोल रहा है। मोटे तौर पर देखा जाए तो भाजपा सरकार के पास कांग्रेस का लच्चर पॉलिटकल कल्चर ही सुलझन की उम्मीद है। जबकि तमाम उलझने खुद से ही हैं।

क्या कोई बदलाव होंगे ?
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ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कोई बदलाव आने वाले वक्त में मौजूदा वक्त की हालत और हालात के मुताबिक होगा ? होगा तो किस स्तर पर होगा ? सरकार खुद तो चल रही है,क्या जनता को 2022 में साथ चला पाएगी ? अगर हां,तो किस आधार पर अगला सफर तय करेगी ? जितने सवाल हैं,उतने ही झंझावात और सियासी बवण्डर भी उठ रहे हैं। अंदाजा लगाना मुश्किल है कि क्या भाजपा झोल में है या फिर भाजपा में झोल है…?

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